-अमृत कलश-
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| आचार्य चंद्रशेखर शास्त्री |
अन्तस की प्रतिध्वनि ही भविष्य है
-आचार्य चंद्रशेखर शास्त्री
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ध्यान रखना! बुरी प्रवृत्तियां अधिक सक्रिय होती हैं और वे अच्छे व्यवहार से नष्ट हो सकती हैं। लेकिन अच्छी प्रवृतियां यदि उदासीन हो जाएं तो बुरी प्रवृत्तियां पुनः प्रबल हो जाती हैं... और ये आपके जीवन को नरक बना सकती हैं...क्योंकि अवचेतन इस पर सतत क्रियाशील होता है। आपके सो जाने के बाद भी वह जागता है और आपकी प्रवृति को, स्वभाव को, व्यवहार को संस्कार में बदल देता है। यह इतना अदृश्य ढंग से होता है कि आपको पता ही नहीं चलता कि आप अपने लिए कैसा भविष्य चुन रहे हैं। आपकी धारणा, मेधा और शक्ति, तीनों आपकी प्रवृति से स्वभाव में बदलकर व्यवहार में ले जाती हैं और आपका जीवन उससे सदा प्रभावित होता है...यदि गहन संकल्प का अभाव हुआ तो आपका अवचेतन ही आपको जीते जी नरकगामी बना सकता है।
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मनुष्य अपने परिवेश के अधीन होता है। देश, काल और परिस्थितियां उसे गहनता से प्रभावित करती हैं। उसका रहन सहन, लालन पालन, शिक्षा, मित्रमंडली और जीवन में मिले खट्टे मीठे अनुभव, उसे उसके जीवन के मार्ग पर चलाते हैं। किसी का भी जीवन निष्कंटक नहीं होता है। उसके सीखने की प्रक्रिया क्या रूप लेती है, उस पर निर्भर करता है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व कैसा होगा और उसका भविष्य कैसा होगा।
ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार मनुष्य के जन्म से पूर्व ही उसका भविष्य लिखा जा चुका होता है। उचित भी है। यही कारण है कि अनेक बार किसी अत्यंत निर्धन परिवार में उत्पन्न होकर भी कोई मनुष्य उच्च प्रशासनिक अधिकारी हो जाता है, राष्ट्र प्रमुख हो जाता है, प्रसिद्ध उद्योगपति हो जाता है, सुप्रसिद्ध संत हो जाता है या अद्वितीय कार्य करने वाला विश्व प्रसिद्ध व्यक्तित्व हो जाता है...इसके विपरीत अनेक बार किसी तपस्वी और शुभकर्म करते हुए सुप्रसिद्ध व्यक्ति के घर उत्पन्न होकर भी कोई व्यक्ति दुरात्मा सिद्ध होता है, किसी बड़े धनिक का पुत्र होकर भी व्यवसाय को नष्ट कर देता है, किसी बड़े नेता के घर जन्म लेकर भी सारी प्रतिष्ठा को धूमिल कर देता है और जन्म जन्मांतरों में अर्जित कुल की परंपराओं, नीतियों, संपत्तियों और स्वाभिमान को धूलधूसरित कर देता है।
इन सबके पीछे देश, काल और परिस्थिति का सिद्धांत कार्य करता है। कर्म का सिद्धांत कार्य करता है। अदृश्य रूप से वह प्रेरक होता है और मनुष्य उसी के अनुरूप कार्य करता है, जिसके फलस्वरूप गति, सुगति या दुर्गति प्राप्त होती है!
कुपुत्र संपूर्ण कुल के संताप का कारण बनता है और सुपुत्र कुलकीर्ति को स्वर्णाक्षरों में लिखा देता है।
भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि
कर्मणो ह्यापि बोधव्यं बोधव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणाश्च बोधव्यं गहनो कर्मणो गतिः।।४/१७।।
अर्थात् स्वार्थ के लिये किया गया कार्य कर्म है और निःस्वार्थ भाव से किया गया कर्म अकर्म है, लेकिन जिस कार्य को नहीं करना चाहिए, जो निषिद्ध हो, उसे करना विकर्म कहलाता है। इसलिए मनुष्य को कर्म, अकर्म और विकर्म का ध्यान रखकर कार्य करना चाहिए। क्योंकि कर्म की गति गहन होती है। जैसे बछड़ा सहस्रों गायों के बीच अपनी माता को खोज लेता है, वैसे ही कर्मफल अपने कर्ता को ढूंढ लेता है।
तो क्या मनुष्य कर्म ही न करे...! नहीं, बिना कर्म के तो कुछ होगा ही नहीं। क्योंकि शास्त्र पुनः कहता है कि
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।
अर्थात् कर्मशील होने से ही कार्य सिद्ध होते है, केवल कल्पना करने से कुछ नहीं होता। क्योंकि सोए हुए सिंह से मृग आकर नहीं कहता है कि मुझे भोजन बना लो...उसके लिए सिंह को परिश्रम करना होता है।
कहने का तात्पर्य है कि किसी भी स्थिति में कर्मशील मनुष्य अपने लक्ष्य को पा ही लेता है। प्रारब्ध, भाग्य और कर्म मिलकर उसके लक्ष्य की पूर्ति करते हैं। इसलिए कर्म करना ही महत्वपूर्ण है।
हम सभी अपने कर्मबंधन से बंधे हैं। वही जन्म का कारण होता है, वही जीवन का और वही मृत्यु का। वास्तव में कोई भी अपना भविष्य नहीं चुनता। वह अपना व्यसन चुनता है। अभ्यास चुनता है। किसी कार्य को बार-बार करने की प्रवृत्ति किसी व्यक्ति के व्यवहार का भाग बन जाती हैं। यह एक निरंतर घटित होते रहने वाली प्रक्रिया है। जो देश, काल और परिस्थिति में सीखी जाती रहती है। यह सीख ही स्वभाव बन जाती है और स्वभाव ही व्यवहार में बदल जाता है। इस प्रकार आपकी प्रवृत्ति, आपका व्यसन, आपका अभ्यास, आपकी सीख, आपका स्वभाव चुनती हैं और स्वभाव आपका व्यवहार चुनता है और व्यवहार आपका भविष्य चुनता है। वे अच्छी हों या बुरी...प्रवृत्तियां आपको बार बार किसी विशेष स्थिति में ले जाती हैं और आपके कर्म की साक्षी बनती हैं।
ध्यान रखना! बुरी प्रवृत्तियां अधिक सक्रिय होती हैं और वे अच्छे व्यवहार से नष्ट हो सकती हैं। लेकिन अच्छी प्रवृतियां यदि उदासीन हो जाएं तो बुरी प्रवृत्तियां पुनः प्रबल हो जाती हैं... और ये आपके जीवन को नरक बना सकती हैं...क्योंकि अवचेतन इस पर सतत क्रियाशील होता है। आपके सो जाने के बाद भी वह जागता है और आपकी प्रवृति को, स्वभाव को, व्यवहार को संस्कार में बदल देता है। यह इतना अदृश्य ढंग से होता है कि आपको पता ही नहीं चलता कि आप अपने लिए कैसा भविष्य चुन रहे हैं। आपकी धारणा, मेधा और शक्ति, तीनों आपकी प्रवृति से स्वभाव में बदलकर व्यवहार में ले जाती हैं और आपका जीवन उससे सदा प्रभावित होता है...यदि गहन संकल्प का अभाव हुआ तो आपका अवचेतन ही आपको जीते जी नरकगामी बना सकता है। इसलिए अपनी प्रवृति पर अंकुश रखने की योग्यता विकसित करो और आत्मानुशासन करना सीखो...वही आपका भविष्य निर्माण करता है और जन्म जन्मांतर का प्रारब्ध भी उसी के अधीन है।
इसलिए बुरी प्रवृत्ति विकसित न हो, उसके लिए सतत प्रयासरत रहें। बुरी संगति से बचें, बुरे साहित्य से बचें, बुरे व्यवहार से बचें, बुरे विचार से बचें...इन सबसे बचना अति दुष्कर कार्य है। जब तक आपके पास श्रेष्ठ संगति का अभाव होगा, बुरी संगति से बचना कठिन होगा। जब तक श्रेष्ठ सुप्रेरक साहित्य नहीं मिलेगा, बुरा साहित्य अपनी पकड़ बनाए रखेगा। जब तक अच्छे व्यवहार के लिए पूर्ण संकल्पित नहीं होंगे, बुरा व्यवहार आचरण में प्रवेश करता रहेगा। ...और बुरा विचार केवल श्रेष्ठ विचार से ही नष्ट किया जा सकता है। इसलिए अपना आहार, व्यवहार, प्रवृत्ति और स्वभाव शुद्ध रखने के लिए संस्कारों को जागृत करने वाले साहित्य, मित्र, गुरु और संत का आश्रय लें....आपका अवचेतन तदनुसार ही आपको मार्गदर्शन करने लगेगा। आपके अन्तस की प्रतिध्वनि ही आपको राह दिखाने लगेगी।

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